गायत्री मंत्र का अर्थ। गायत्री मंत्र क्यों और कब ज़रूरी है।
गायत्री मंत्र क्यों और कब ज़रूरी।
सुबह उठते वक़्त 8 बार । अष्ट कर्मों को जीतने के लिए !!
भोजन के समय 1 बार । अमृत समान भोजन प्राप्त होने के लिए !!
बाहर जाते समय 3 बार । समृद्धि सफलता और सिद्धि के लिए !!
मन्दिर में 12 बार । प्रभु के गुणों को याद करने के लिए !!
छींक आए तब गायत्री मंत्र उच्चारण 1 बार । अमंगल दूर करने के लिए !!
सोते समय 7 बार । सात प्रकार के भय दूर करने के लिए !!
गायत्री मंत्र की विस्तृत विवेचना शब्दार्थ एवं भावार्थ।
जो गय (प्राणों) की रक्षा करती है – वह गायत्री है। प्राण कहते हैं चैतन्यता एवं सजीवता को ।
हमारे भीतर जो गति, क्रिया, विचार शक्ति, विवेक एवं जीवन धारण करने वाला तत्व है- वह प्राण कहलाता है।
इस प्राण के कारण ही हम जीवित हैं प्राण शक्ति बढ़ाने, इसको सुरक्षित रखने, इसके निरर्थक व्यय/ ह्रास को रोकने- सभी में गायत्री मन्त्र जाप एवं गायत्री साधना हमारी सहायता करती है
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्यः धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्
1. ऊँ कार(अकार,उकार, मकार) को ब्रह्म कहा गया है। वह परमात्मा का स्वयंसिद्ध नाम है। इस शब्द ब्रह्म से रूप बनता है।
इसी के भ्रमण, कम्पन, गति और मोड़ के आधार पर ‘स्वस्तिक’ बनता है। यह स्वस्तिक ऊँकार का रूप है। ऊँकार को ‘प्रणव’ भी कहते हैं। यही सब मन्त्रों का हेतु है,
क्योंकि इसी से सभी शब्द और मन्त्र बनते हैं।
2. गायत्री मन्त्र में ऊँकार के पश्चात् – भूः भुवः स्वः – यह तीन व्याह्रतियाँ आती हैं। व्याह्रतियों का यह त्रिक् अनेकों बातों की ओर संकेत करता है।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीन उत्पादक, पोषक, संहारक शक्तियों का नाम भूः भुवः स्वः है। सत, रज,तम इन तीन गुणों को भी त्रिविध गायत्री कहा गया है।
भूः को ब्रह्म, भुवः को प्रकृति और स्वः को जीव भी कहा जाता है। अग्नि, वायु और सूर्य इन तीन प्रधान देवताओं का भी प्रतिनिधित्व यह तीन व्याह्रतियाँ करती हैं।
तीनों लोकों का भी इनमें संकेत है। एक ऊँ की तीन संतान हैं- भूः भुवः स्वः ।
3. तत् – उस, वह का सूचक है। यह शब्द परमात्मा – परब्रह्म की ओर संकेत करता है। मन्त्र में तत् शब्द का प्रयोग अनिर्वचनीय ईश्वर की ओर संकेत करने हेतु प्रयोग किया गया है।
4. सवितुः – सविता सूर्य को कहते हैं, जो तेजस्वी एवं प्रकाश मान है। परमात्मा की अनन्त शक्तियाँ हैं। उनमें तेजस्वी शक्तियों को सविता कहा गया है।
ईश्वर की तेज शक्ति को धारण करके हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वांग पूर्ण तेज युक्त बनें।
5. वरेण्य – श्रेष्ठतम को वरण करने, चुनने, ग्रहण करने योग्य को, धारण करने योग्य को वरेण्य कहा गया है। ईश्वरीय सत्ता में से गायत्री द्वारा हम उन तत्वों को ग्रहण करते हैं जो वरेण्य हैं, श्रेष्ठ हैं, ग्रहण करने योग्य हैं।
धर्म, कर्तव्य, अध्यात्म, सत्,चित्, आनन्द, सत्य, शिव, सुन्दर की ओर जो तत्व हमें अग्रसर करते हैं- वे वरेण्य हैं।
6. भर्ग – बुराइयों का, अज्ञान अन्धकार का नाश कर देने, भस्म / जला देनेवाली परमात्मा की शक्ति ‘भर्ग’ कहलाती है।
हम भर्ग को अपने में धारण कर बुराइयों, पापों, दुर्बलताओं, कुपप्रवृत्तियों से सावधान रहें और उन्हें नष्ट करने के लिए सदा धर्मयुद्ध करते रहें।
7. देवस्य – देव कहते हैं दिव्य को, अलौकिक को, असाधारण को। जो अपने शक्ति/ सामर्थ्य को परमार्थ, दूसरों की सेवा में लगाने, देते रहने की इच्छा करते हैं, वे देवता हैं।
8. धीमहि कहते हैं ध्यान करने को। जिस वस्तु का हम ध्यान करते हैं- उस पर मन जमता है- इससे उसमें रुचि उत्पन्न होती है, जिससे उसे प्राप्त करने की आकांक्षा बढ़ती है,
अतः प्रयत्न उत्पन्न होता है और यह प्रयत्न अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करा देता है। ध्यान बीज है और सफलता उसका फल।
9. धियः – आत्मा को सर्वाधिक आवश्यकता सद्बुद्धि की पड़ती है- इसी को धियः कहते हैं। गायत्री में इसी की प्राप्ति की प्रार्थना की जाती है।
10. यः (यो) का अर्थ है ‘जो’ । यह ‘जो’ का संकेत अनिर्वचनीय परमात्मा के लिए है।
जो परमात्मा उपरोक्त शक्तियों/ गुणों वाला है वह हमारे लिए धियः तत्व (सद्बुद्धि) प्रदान करे।
11. नः का अर्थ है ‘हम लोगों का’ – हमारा। मन्त्र में परमात्मा से सद्बुद्धि की प्रार्थना/ याचना की गई है। पर वह अकेले अपने लिए नहीं की गई है वरन् विस्तृत ‘हम’ के लिए की गई है।
हम सबको सद्बुद्धि मिले। मेरे अन्तर्जगत और वाह्य जगत में सर्वत्र सद्बुद्धि का प्रकाश हो – ऐसी प्रार्थना भगवान से की जाती है।
12. प्रचोदयात् का अर्थ है प्रेरणा करना, बढ़ाना। यह कहकर परमात्मा से बुद्धि को प्रेरित करने की याचना की गई है। जिससे उत्साहित होकर हम अपने अन्तःकरण का निर्माण करने में जुट जावें।
अपनी कु-बुद्धि से लड़कर उसे परास्त करें और सुबुद्वि की स्थापना का पुरुषार्थ दिखावें।
सद्बुद्धि की ‘अन्तःप्रेरणा’ ईश्वर से ही प्राप्त होती है ।
परन्तु यह सद्बुद्धि भी अपने प्रयत्न से ही आती है, इसके लिए संयम, व्रत-उपवास, स्वाध्याय, सत्संग, ध्यान, प्रार्थना, सेवा आदि सद्कर्मों का आश्रय लेना पड़ता है।
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